नई दिल्ली. भारत में सुधार लाना एक कठिन कार्य है. सरकार के कभी विपक्ष और विभिन्न हितधारकों से मतभेद होते हैं, तो कभी सभी एकमत हो जाते हैं. मतभेद की स्थिति में इसे जाहिर करने के लिए अक्सर सड़कों पर प्रदर्शन किया जाता है. देश में विभिन्न सुधारों के कार्यान्वयन में देरी का ये एक प्राथमिक कारण रहा है.
नए कृषि कानूनों को लेकर बीते कुछ दिनों से दिल्ली में जो उथल-पुथल मची हुई है, ये इसका सबसे अच्छा उदाहरण है. इसमें निहित स्वार्थ वाले समूह किसानों को गुमराह कर रहे हैं और उन्हें विद्रोह करने के लिए उकसा रहे हैं. ऐसे लोग किसान आंदोलन के जरिए अपने खोए हुए राजनीतिक आधार को फिर से स्थापित कर रहे हैं. किसान समुदाय से बेहतर किसी भी पार्टी के लिए कोई दूसरा तुरुप का पत्ता नहीं है.
कोविड महामारी के दौरान घर लौट रहे प्रवासी मजदूरों और श्रमिकों की दुदर्शा को जोर-शोर से उठाने, आरक्षण के मु्द्दे को दोबारा उठाने और नागरिकता संशोधन कानून को लेकर विपक्ष के लामबंद होने तक… पिछले कुछ वर्षों में देश ने विभिन्न विरोधों को देखा है. उनमें से अधिकांश प्रधानमंत्री और विकास से संबंधित उनकी पहल के सामने सपाट हो गए हैं. सरकार से मुकाबला करने के लिए विपक्ष नित नए तरीके और रास्ते खोजते हैं. जनता से समर्थन मांगते हैं.
राष्ट्रीय ताने-बाने को खींचे जाने पर किसान सामाजिक और धार्मिक सीमाओं को काट देते हैं. इसलिए उनसे जुड़े किसी भी मुद्दे को समाज के सभी क्षेत्रों से समर्थन और ध्यान मिल जाता है. उदाहरण के तौर पर 2009 में सत्ता में वापसी के बाद यूपीए को किसानों के ऋण की माफी के लिए प्रमुख रूप से जिम्मेदार ठहराया गया था.
नए कृषि कानूनों पर प्रधानमंत्री द्वारा कई सार्वजनिक मंचों से किसानों को आश्वासन दिए गए. गृहमंत्री और कृषि मंत्री भी किसानों को कई बार समझाने की कोशिश कर चुके हैं कि नए कानून सोच-समझकर बनाए गए हैं. इससे किसी का अहित नहीं होगा. मगर किसानों का आंदोलन जारी है और वो अपनी मांगों को लेकर अड़े हुए हैं. केंद्र सरकार और किसान यूनियनों के बीच गतिरोध जारी है, क्योंकि सरकार के साथ कई दौर की चर्चाएं विफल रही हैं.
भारत एक कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था है, जहां लगभग दो-तिहाई आबादी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृषि गतिविधियों में लगी हुई है. विशेषज्ञों और प्रमुख हितधारकों ने कृषि प्रणाली में समय-समय पर सुधार लाने के लिए कई मांगों को उठाया है. ये नवीनतम कृषि सुधार किसानों के सशक्तीकरण और उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति को सुधारने की दिशा में है. तीन नए कानूनों का आधार “वन इंडिया, वन एग्रीकल्चर मार्केट” के विचार पर आधारित है, जिसका उद्देश्य किसानों और कॉर्पोरेट के बीच अवसरों को अधिकतम करने और बिचौलियों को कम करने के लिए तालमेल बनाना है. इन कानूनों से न केवल कृषि-सुधार में सुधार होगा, बल्कि रोजगार के बड़े अवसर पैदा होंगे. आर्थिक विकास और ग्रामीण विकास में सकारात्मक योगदान होगा. साथ ही अधिक स्वतंत्रता के साथ किसानों की दुर्दशा में सुधार होगा.
बेशक किसान एमएसपी को लेकर कुछ आशंकित हैं. लेकिन इसे सरकार समझाने की पूरी कोशिश कर रही है. किसानों को डर है कि एमएसपी खत्म कर दी जाएगी और मंडियों को बंद किया जा रहा है. लेकिन नए कृषि कानून में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है. किसानों की बीच फैलाई जा रही बातें तथ्यों पर आधारित नहीं है.
एमएसपी और मंडियां किसानों को चुनने के लिए उपलब्ध अतिरिक्त विकल्पों के साथ-साथ उसी तरह से काम करना जारी रखेंगी. कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग, जिसे एक दानव के रूप में चित्रित किया गया है जो छोटे किसानों को खाएगा और उनकी जमीन कॉर्पोरेट को बेची जाएगी. नए कानूनों में ऐसा भी कुछ नहीं है. हालांकि, यह सामान्य ज्ञान है कि फसलें भंडारण और गोदामों में सड़ जाती हैं, जिसके परिणामस्वरूप भोजन की बर्बादी होती है और सरकारी खजाने को नुकसान होता है. सरकार ने इससे बचने के लिए कई प्रावधान किए हैं.
एग्री-इंफ्रा विकसित करने से जुड़े कम निवेश का प्राथमिक कारण आवश्यक वस्तु अधिनियम के कारण था. अब नए कानूनों से भंडारण, वितरण और कृषि क्षेत्र में अधिक निवेश को बढ़ावा मिलेगा. परिवर्तन अंततः मूल्य श्रृंखला के दोनों सिरों को लाभान्वित करेंगे. यानी किसानों और उपभोक्ताओं दोनों को इन कानूनों से फायदा ही होगा.
इसके अलावा भय और आशंकाओं को फैलने को ध्यान में रखते हुए सरकार किसानों संगठनों के सुझावों को कानून में शामिल करने पर सहमत हुई है. पुराने कानूनों के कारण किसानों को लंबे समय तक स्वतंत्र रूप से व्यापार करने के अपने अधिकार से वंचित किया गया है. अब कृषि सुधारों के कारण, कुछ राजनीतिक संगठनों के साथ निष्ठा रखने वाले बिचौलियों की लॉबी घबरा रही है और अशांति पैदा कर रही है. ये आंदोलन इसी घबराहट का नतीजा कहा जा सकता है.
इस मामले में हारने वाला वह है जो अंत में केंद्र के खिलाफ लड़ाई लड़ने के लिए एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है. बिलों को किसानों के विरोधी के रूप में देखा जा रहा है और उनके मन में आशंकाएं पैदा की जा रही हैं. जो कि सरासर गलत है. यह समय है कि सरकार को बढ़ती जनसंख्या के साथ कृषि सुधारों में यू-टर्न नहीं लेना चाहिए. जो लोग परिवर्तन का विरोध कर रहे हैं, वे इस तथ्य को पचाने के लिए तैयार नहीं हैं कि किसान स्वतंत्र रूप से व्यापार और कार्य कर सकते हैं.
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